

कविता
हासिल
मोहम्मद रैहान
रिसर्च स्कॉलर – जामिया मिल्लिया इस्लामिया
पढ़ लिख लेने से
कोई मोतबर नही होता
कोई शोहरत, कोई इज़्ज़त नही मिलती
यह दुनिया एक बाज़ार है
इस बाज़ार-ए-खरीद-ओ-फ़रोख़त मे
मिल जाए ख़रीदार कोई
इल्म बिक जाए, इसलिए हमने
तह़रीर किए हैं फायदे इसके
वह तबक़ा जो अशराफिया कहलाता है
उस को नही होता सरोकार कोई
आपने क्या पढ़ा है कितना पढ़ा है
उन की महफिल मे सदा
जाम-ओ-सुबू का दौर चलता है
वहां गुफ्तगू नही होती इल्म-ओ-हिक्मत की
उस मे ज़िकर नही होता मीर-ओ-ग़ालिब का
किसी नाज़ुक अनदाम दोशिज़ह ने
ये कभी नही चाहा की कोई
आशिक मंटू या मोपासां हो
मगर फिर भी ना जाने क्यों
मुझे एक दाइया कोई
खिंचे जाता है उस जानिब
किताब इल्म-ओ-अदब मे जहाँ
बाब-ए-तन्हाई है , उदासी है
यह तन्हाई मेरा हासिल है
यह उदासी मेरी कमाई है