

कविता
मोहब्बत की हिफाज़त
मोहम्मद रैहान
रिसर्च स्कॉलर ,जामिया मिलिया इस्लामिया
देखो ये ज़िद नही अच्छी
तुम ने पढ़ी हैं साइंसी किताबें
ख़ोशा चीं रही हो तुम
मग़रबी फलसफो की
तुम्हे तो इल्म होगा ही
हर वह शै जिस मे जान होती है
वह ज़िंदा कैसे रहती है
दरया मे जो मखलूक रहती है
ख़ुशकी पे कैसे तड़पती है
ये पेड़ पौधे जिन की शांखों पर
हम देखते हैं हरे भरे पत्ते
तुम्हे मालूम है ये कितना जतन करते हैं
इस धरती की तरफ देखो
यह ग़ल्ला यूं ही नही देती
बादल को बरसना पड़ता है
सूरज को हर रोज़ निकलना पड़ता है
तुम यह अक्सर कहती हो
मोहब्बत भी मरती है जीती है
तो आओ मे तुम को दिखाता हूं
मोहब्बत की यह धरती अपनी
कितनी बजंर सी हो गयी है
बीज मोहब्बत का जो हम ने बोया था
वह आज भी बैचैन ज़ेरे ज़मीं है
न जड़े फैलीं ना कोपलें फूटीं
दरअसल मौसम उसे वह मिला नही
के जिस मे फूल खिलते हैं
परिंदे चहचहाते हैं
अओ कुछ ऐसा करते हैं
ज़ेरे ज़मीन की बैचेनी
ठंडे पसीने से शराबोर हो जाए