

मोहम्मद रैहान, जामिया मिलिया इस्लामिया
इरफान ख़ान की मौत से मेरा ये विश्वास और भी मज़बूत हो गया है कि फिल्म उद्योग बड़ी तेज़ी के साथ अच्छे लोगो से ख़ाली होती जा रही है। मैंने ये बात कल लिखी थी जब मुझे इरफान ख़ान की मौत की खबर मिली। आज ऋषि कपूर ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। कल तक जो लोग मेरी बातों को दीवाने की बात कह रहे थे आज वो खुद मेरे शब्दों को खंगाल रहे हैं।
ये हादसा आप के लिए अजीब नही होना चाहिए जब कुछ दिनो बाद आप को पर्दे पर सिर्फ “नौटंकी” करने वाले नज़र आने लगें। कुछ नए अदाकार अपनी छिछोरी हरकतों को ही अदाकारी समझते हैं। कादर ख़ान ने बहुत पहले अपने किसी इंटरव्यू मे कहा था के अब जो लोग फिल्म इंडस्ट्री मे आ रहे हैं उन की ज़बान बहुत ही ख़राब होती है। वे संवाद की प्रस्तुति की शैली नहीं जानते हैं। इरफान ख़ान की मौत से हिंदी सिनेमा घरों में इतनी तारीकी हो गई है जिसे कोई अभिनेता कभी रौशन नही कर सकता। अब अदाकार रहे भी कहां। आप फिल्म इंडस्ट्री की तरफ नज़र उठा कर देख ले वहां, सिवाय कुछ के, सिर्फ “जोकर” बच गए है।
अच्छी अदाकारी के बारे मे कहा जाता है कि वह अदाकारी यानी नक्काली ना लगे। इरफान ख़ान पर्दे पर जिस भूमिका मे सामने आए उसे देखने पर ऐसा लगा जैसे वह रोल ही उनकी असल ज़िन्दगी है। पान सिंह तोमर, मदारी, लंच बॉक्स और मकबूल उन की वह फिल्मे हैं जिन मे उन के अभिनय के अलग-अलग रंग बिखरे हैं। हिंदी मीडियम और अंग्रेजी मीडियम मे भी उन की ज़बरदस्त अदाकारी देखने को मिली। मुझे यह लिखते हुए बड़ा दुख हो रहा है कि अंग्रेजी मीडियम उन की ज़िंदगी की आख़िरी फिल्म है।
अदाकारी के सिवा उनके पास कुछ था भी तो नही। ना सलमान ख़ान की बॉडी थी ना तो आमिर ख़ान की खूबसूरती। एक आम सी सूरत, बाहर की तरफ लटकी हुई आँखे, पतला दुबला जिस्म, इस फिचर के इंसान को भला कोई हिंदी सिनेमा मे जगह दे सकता है ?? जहाँ सिर्फ ग्लैमर बिकता हो वहाँ Average Looking Face को खपाना बड़ा मुश्किल होता है। अच्छी शक्ल व सूरत और पर्सनैलिटी वाले मुम्बई की गली गली मे नज़र आते हैं। उन की जिंदगी का एक एहम हिस्सा निर्देशक और फिल्म निर्माताओं के यहां चक्कर लगाने मे गुज़र जाता है लेकिन फिल्म मे काम करना उन्हे नसीब नही होता। अगर किसी तरह एक दो फिल्म मिल भी गयी तो बस वहीं दम तोड़ दिया। जो अदाकार अपनी अदाकारी मे जिंदा नही रहता वह अदाकार अच्छी सूरत और बॉडी के बावजूद भी पर्दे की दुनिया से हमेशा के लिए उठ जाता है। उसे ना कोई दर्शक याद करता है और ना ही कोई फिल्म निर्माता मुंह लगाता है।
इरफान ख़ान को भी शुरुवाती दिनो में संघर्ष करना पड़ा होगा। मुझे नही मालूम वह दौर उन के लिए कितना कठिन रहा लेकिन धीरे-धीरे अदाकारी मे उन का क़द बहुत ऊंचा होता चला गया था। उनको अपने और अपनी अदाकारी पर इतना यकीन था के जब एक बार उनसे किसी ने कहा के हिंदी सिनेमा मे ख़ान होना Matter करता है तो उन्होंने अपने नाम मे ख़ान लिखना बंद कर दिया था। आप उनकी आख़िरी कुछ फिल्मो मे ये ख़ान टाइटल लिखा हुआ नही पाएंगे।
इरफान ख़ान एक बेहतरीन अदाकार थे और उनकी अदाकारी को स्वाभाविक बनाने मे उनकी ढ़लकी हुई आंखे उनकी मदद करती थीं। उन आंखो को देखो तो कुछ कशीश नही रखती हैं लेकिन उनमे झांको तो आग का दरिया बहता हुआ नजर आता है। हल्के जिस्म के बावजूद उन्होंने नकारात्मक भूमिका मे खूब अभिनय दिखाई है। वह अपनी फिल्मो मे अदाकारी नही करते थे बल्कि जिस रोल मे होते थे उसके अनुरूप खुद ढ़ल जाते थे। इतना स्वाभाविक अदाकार शायद ही अब हिन्दी सिनेमा को मिले।